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अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑ ॥१५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। वा॒चः। वि॒सर्ज॑न॒मिति॑ वि॒ऽसर्ज॑नम्। दे॒ववी॑तय॒ इति॑ दे॒वऽवी॑तये। त्वा॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। बृ॒हद्ग्रा॒वेति॑ बृ॒हत्ऽग्रा॑वा। अ॒सि॒। वा॒न॒स्प॒त्यः। सः। इ॒दम्। दे॒वेभ्यः॑। ह॒विः। श॒मी॒ष्व॒। श॒मि॒ष्वेति॑ शमिष्व। सु॒शमीति॑ सु॒ऽशमि॑। श॒मी॒ष्व॒। श॒मि॒ष्वेति॑ शमिष्व। हवि॑ष्कृत्। हविः॑कृ॒दिति॒ हविः॑कृत्। आ। इ॒हि॒। हवि॑ष्कृत्। हविः॑कृ॒दिति॒ हविः॑ऽकृत्। आ। इ॒हि॒ ॥१५॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं सब जनों के सहित जिस हवि अर्थात् पदार्थ के संस्कार के लिये (बृहद्ग्रावा) बड़े-बड़े पत्थर (असि) हैं और (वानस्पत्यः) काष्ठ के मूसल आदि पदार्थ (देवेभ्यः) विद्वान् वा दिव्यगुणों के लिये उस यज्ञ को (देववीतये) श्रेष्ठ गुणों के प्रकाश और श्रेष्ठ विद्वान् वा विविध भोगों की प्राप्ति के लिये (प्रतिगृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। हे विद्वान् मनुष्य ! तुम (देवेभ्यः) विद्वानों के सुख के लिये (सु, एमि) अच्छे प्रकार दुःख शान्त करनेवाले (हविः) यज्ञ करने योग्य पदार्थ को (शमीष्व) अत्यन्त शुद्ध करो। जो मनुष्य वेद आदि शास्त्रों को प्रीतिपूर्वक पढ़ते वा पढ़ाते हैं, उन्हीं को यह (हविष्कृत्) हविः अर्थात् होम में चढ़ाने योग्य पदार्थों का विधान करनेवाली जो कि यज्ञ को विस्तार करने के लिये वेद के पढ़ने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की शुद्ध सुशिक्षित और प्रसिद्ध वाणी है, सो प्राप्त होती है ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य वेद आदि शास्त्रों के द्वारा यज्ञक्रिया और उसका फल जान के शुद्धि और उत्तमता के साथ यज्ञ को करते हैं, तब वह सुगन्धि आदि पदार्थों के होम द्वारा परमाणु अर्थात् अति सूक्ष्म होकर वायु और वृष्टि जल में विस्तृत हुआ सब पदार्थों को उत्तम कर के दिव्य सुखों को उत्पन्न करता है। जो मनुष्य सब प्राणियों के सुख के अर्थ पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ को नित्य करता है, उस को सब मनुष्य हविष्कृत् अर्थात् यह यज्ञ का विस्तार करनेवाला, यज्ञ का विस्तार करनेवाला उत्तम मनुष्य है, ऐसा वारम्वार कहकर सत्कार करें ॥१५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स यज्ञः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्नेः) भौतिकस्य (तनूः) शरीरवत्तस्य संयोगेन। विस्तृतो यज्ञः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (वाचः) वेदवाण्याः (विसर्जनम्) यजमानेन होतृभिश्च हविषस्त्यागो मौनं वा (देववीतये) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा वीतिर्ज्ञानं प्रापणं प्रजनं व्याप्तिः प्रकाशः। अन्येभ्य उपदेशनं विविधभोगो वा यस्यां तस्यै। वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (त्वा) तमिमं सम्यक् शोधितं हविःसमूहम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (बृहद्ग्रावा) बृहच्चासौ ग्रावा च सः (असि) अस्ति (वानस्पत्यः) यो वनस्पतेर्विकारस्तं हविःसंस्कारार्थम् (सः) त्वं यजमानः (इदम्) यत् प्रत्यक्षं हुतं तत् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा (हविः) संस्कृतं सुगन्ध्यादियुक्तं द्रव्यम् (शमीष्व) दुःखनिवृत्तये सुखसम्पादनार्थं कुरुष्व। शमु उपशमे इत्यस्माद् बहुलं छन्दसि [अष्टा꠶२.४.७३] इति श्यनो लुक्। तुरुस्तुशम्यम꠶ (अष्टा꠶७।३।९५)। इतीडागमः। महीधरेणात्र शपो लुगित्यशुद्धं व्याख्यातम्। (सुशमि) सुष्ठु दुःखं शमितुं शीलं धर्मः पदार्थानां साधुकरणं वा यस्य तत्। शमित्यष्टा꠶ (अष्टा꠶३।२।१४१)। अनेन शमेर्घिनुण्। इदमपि पदमुवटमहीधराभ्यामन्यथैव व्याख्यातम् (शमीष्व) पुनरुच्चारणं हविषोऽत्यन्तसंस्कारद्योतनार्थम् (हविष्कृत्) हविः करोति। अनया वेदवाण्या सा हविष्कृद् वाक् (एहि) अध्ययनेनैवैति प्राप्नोति (हविष्कृत्) अत्र यज्ञसम्पादनाय ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां चतुर्विधा वेदाध्ययनसंस्कृता सुशिक्षिता वाग् गृह्यते ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।४।८-१०) व्याख्यातः ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - अहं सर्वो जनो यस्य हविषः संस्काराय। बृहद्ग्रावाऽ(स्य)स्ति वानस्पत्यश्च यदिदं देवेभ्यो भवति तं देववीतये गृह्णामि। हे विद्वन् ! स त्वं देवेभ्यो विद्वद्भ्यः सुशमिं तद्धविः शमीष्व शमीष्व। ते मनुष्या वेदादीनि शास्त्राणि पठन्ति पाठयन्ति च तानेवेयं वाग् हविष्कृदेहि हविष्कृदेहीत्याह ॥१५॥
भावार्थभाषाः - यदा मनुष्या वेदादिशास्त्रद्वारा यज्ञक्रियां फलं च विदित्वा सुसंस्कृतेन हविषा यज्ञं कुर्वन्ति तदा स सुगन्ध्यादिद्रव्यहोमद्वारा परमाणुमयो भूत्वा वायौ वृष्टिजले च विस्तृतः सन् सर्वान् पदार्थानुत्तमान् कुर्वन् दिव्यानि सुखानि सम्पादयति। यश्चैवं सर्वेषां प्राणिनां सुखाय पूर्वोक्तं त्रिविधं यज्ञं नित्यं करोति तं सर्वे मनुष्या हविष्कृदेहि हविष्कृदेहीति सत्कुर्य्युः ॥१५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा माणसे वेदशास्त्रानुसार यज्ञक्रियेचे फळ जाणून शुद्ध रीतीने उत्तम यज्ञ करतात. तेव्हा होमात अर्पण केलेल्या सुगंधी वस्तूंचे परमाणू अतिसूक्ष्म होऊन वायू व वृष्टिजलात मिसळून सर्व पदार्थांना उत्तम बनवितात व दिव्य सुख उत्पन्न करतात. तसेच जो मनुष्य पूर्वोक्त (१) इहलोक व परलोक सुखाची विद्या, (२) शिल्पविद्येचे प्रात्यक्षिक, (३) विद्वानाचा संग असे तीन प्रकारचे यज्ञ करतो त्या माणसाला सर्वांनी हविष्कृत अर्थात यज्ञविस्तार करणारा उत्तम माणूस समजून त्याचा स्वीकार करावा.